डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
कालापानी उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले में स्थित एक खूबसूरत क्षेत्र है। अमूमन कालापानी का नाम कई ऐतिहासिक घटनाओं में लिया जा चुका है। इतिहास में कालापानी नाम की क्रूर सजा होती थी। फिल्मी जगत में भी कालापानी का नाम बेहद प्रचलित रहा। 1958 में आनंद साहब की फिल्म कालापानी पर्दे पर देखने को मिली थी। अमूमन कालापानी का नाम सुनते ही लोगों के मन में फिल्में और क्रूर सजाओं की व्यथा उमडने घुमडने लगती है। कालापानी विशाल दर्रे और पहाड़ियों के बीच स्थित है। यह उत्तराखण्ड राज्य के पिथौरागढ़ जिले का एक खूबसूरत नमूना है।
कालापानी आस्था का प्रतीक भारतीयों का एक बेहद ही खूबसूरत तीर्थस्थल है। यह भारत के खूबसूरत राज्य उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले में स्थित पूर्वी कोने का एक क्षेत्र है। यह पिथौरागढ़ से 110 किलो मीटर दूर है। यहां रीति रिवाज के भी बहुलता देखने को मिलती है। यहाँ रं समुदाय के लोग अस्थि विसर्जन करते हैं। सबसे रोचक बात यह है कि यह क्षेत्र 11788 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। काला पानी से जुड़ी कई मान्यताएं जो आज भी मानी जाती हैं, इस क्षेत्र को ही भारत काली नदी का उद्गम स्थल आज भी मानता है। यहां आईटीबीपी द्वारा सहस्त्र चंडी माता काली के मंदिर का भी निर्माण किया गया है। इस मंदिर का ख्याल और इसका संपूर्ण देखभाल आईटीबीपी द्वारा ही किया जाता है। कालापानी में स्थित आस्था का प्रतीक काली मंदिर के गर्भगृह से काली नदी का उद्गम होता है। गर्भगृह से निकली यह काली नदी कालापानी से भारत और नेपाल दोनों देशों का सीमांकन करती है। यह काली अपनी वेग से बढ़ते हुए आगे चलकर टनकपुर में यह शारदा नदी बन जाती है।
सबसे गर्व की बात यह है कि यहां भारत की सुरक्षा एजेंसियां हर समय मुस्तैद रहती है। यह क्षेत्र सीमा की सुरक्षा से संबंधित बेहद महत्वपूर्ण है। यहां सीमा सुरक्षा के लिए सेना के साथ आइटीबीपी और एसएसबीपी सदैव तैनात रहते हैं। कालापानी का इतिहास बहुत रोचक है। भारतीय इतिहास के अनुसार 1815 में जब ब्रिटिश सेनाओं का युद्ध गोरखाओं से हुआ था। गोरखाओं द्वारा इस युद्ध में इस इलाके को जीत लिया गया था। मूलतः यह स्थान नेपाल के पश्चिमी सिरम सीमाई इलाके में आता है। इसके बाद यह क्षेत्र भारतीय भूमि का हिस्सा बन गया था। उसी समय ब्रिटिश सरकार और नेपाल सरकार के बीच सुगौली नामक एक संधि की गई थी। संधि के बाद नेपाल के महाराजा ने ये इलाका ब्रिटिश भारत को सौंप दिया था। इसका इतिहास भी इसकी खूबसूरती की तरह बेहद खूबसूरत है। काला पानी जैसे खूबसूरत तथ्यों में सहेजा हुआ यह क्षेत्र पहाड़ की वादियों से ढका हुआ है।1962 में हुए भारत चीन युद्ध के दौरान बनाए गए बंकर आज भी दिखाई पड़ते हैं। सबसे रोचक जानकारी और ध्यान देने वाली बात यह है कि इस आधुनिक समय में भी यहाँ संपूर्ण क्षेत्र में संचार की कोई सुविधा नहीं उपलब्ध है। यहां की सुरक्षा एजेंसियों के पास वायरलेस या सैटेलाइट फोन अवश्य रहता है। काला पानी आस्था के साथ साथ पहाड़ी खूबसूरती से बेहद सुंदर लगता है।
यह बात पता होना चाहिए कि कालापानी से चीन की दूरी मात्र 12 किलोमीटर है। इस क्षेत्र के नजदीक चीन नाभीढांग है। पर्वत की खूबसूरती और आस्था का प्रतीक मंदिरों यहां आए पर्यटकों का मन मोह लेती है। इस बात की जानकारी होना बेहद जरूरी है कि प्रसिद्ध पर्वत ओम पर्वत भी यही मौजूद है। सुरक्षा बल के दृष्टि से देखें तो यह जगह विशेष अहम योगदान रहता है। कालापानी एक विशाल क्षेत्र है यह स्थान 372 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। यहां पड़ोसी देश चीन और नेपाल और भारत के साथ सीमा मिलती है। वहीं भारत इस क्षेत्र को उत्तराखंड का हिस्सा मानने का है। वहीं बात करें नेपाल की तो वह इसे अपने नक्शे में दर्शाया है। नेपाल ने आधिकारिक तौर पर अपने देश के एक नए राजनीतिक मानचित्र को जारी किया है। हैरान करने वाली बात ये है कि नेपाल ने भारत में मौजूद उत्तराखंड के कालापानी, लिंपियाधुरा और लिपुलेख क्षेत्र को नेपाली संप्रभु क्षेत्र के हिस्से के रूप में दिखाया है। जिसके बाद से भारत और नेपाल को कटाक्ष बयानों की युद्ध भूमि पर खड़ा कर दिया है।
हिंदुस्तान के कोने.कोने में तीर्थ हैं। दक्षिण से पश्चिम तकए उत्तर से पूरब तक के धामों, नदियों के उद्गम स्थलों, गिरिओं, सरोवरों में पवित्र स्नान और दर्शनार्थ आने.जाने की सैकड़ों वर्षों से चली आ रही परंपराओं ने अलग.अलग भागों के लोगों को आपस में जोड़ा है। अमरनाथ यात्रा में पहाड़ी रास्तों पर घोड़े. ट्टटुओं पर श्रद्धालुओं को संभालकर ले जाते मुस्लिम समुदाय के लोग हों या हेमकुंड साहिब पहुंचे हिंदू यात्रियों को प्रसादा बांटते सिक्ख, तिरुपति श्रृंग पर बाल मुंडाते भक्तों की सुविधा का इंतज़ाम करते दक्षिण भारतीय पंडे या मीलों लंबे सफर के बाद उज्जैन, द्वारिका, रामेश्वरम, कामाख्या तक की धरती पर पहुंचे यात्रियों को दर्शन कराने में जुटे स्थानीय सेवक हों, कुंभ में बिकती रामनामी बुनते मुस्लिम जुलाहे हों या ऐसे ही जाने कितने अनाम, अनजान लोग हों, उन्हीं से तो आस्थावानों की यात्राओं को पूर्णता मिलती है। इस तरह, धार्मिक भाव से की गई यात्राएं सांस्कृतिक आदान.प्रदान का माध्यम बन जाती हैं। स्वयं से आत्म.साक्षात्कार की यात्रा, खुद से ही खुद के मिलने की यात्रा परोक्ष रूप से दूसरे कितने ही अपरिचितों से मिलवा जाती हैं। साथ चलते सहयात्री, एक साथ शीश नवाते श्रद्धालु, पगडंडी पर किसी के फिसलते तन को संभालते दूसरे यात्री कैसे एक ही यात्रा में अलग.अलग होते हुए भी एक होते हैं। इस मायने में तीर्थयात्राएं हमें बड़ा बनाती हैं, अपनी लघुता को भुलाने के लिए प्रेरित करती हैं। शायद तभी लंबी, कष्टकारी यात्राओं से लौटने पर हम वैसे ही नहीं रह जाते, जैसे गए थे। कोरोना के कारण इसके प्रदेश में इसको लेकर न होने के कारण इसका दीदार नहीं हो पा रहा है।